सहेज कर रखी गयी ,
शेल्फ की किताबों पे पड़ी हुई गर्द जैसे .
या, किसी मोड़ पे इंतज़ार में उखड़ते,
मील के पत्थर जैसे.
आवाज़ को क़ैद करते नुक्तों की तरह
किसी एक सोच से चिपक कर
चुप से रह जाते हैं .
“ठहरे हुए लोग”
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Archive for the ‘कविता’ Category
आदत
Posted in कविता, रश्मि चौधरी on जुलाई 30, 2009| 8 Comments »
प्रेम पत्र ( दिल के भीतर की आवाज़ )
Posted in कविता, पवन राय on जुलाई 28, 2009| 10 Comments »
हे मृगनयनी हे कमल बदन
मै क्या दू तुमको संबोधन
अ़ब तुम ही मेरा जीवन हो
तुझमे बसते है प्राण प्रिये
प्रथम मिलन की वह वेला
आँखों से क्या तुमने खेला
तेरे नयनो के तीक्ष्ण बाण
मैंने अपने दिल पे झेला
छरहरा बदन मदमस्त चाल
लगाती जैसे लचकती डाल
तेरी सुंदर काया से
मन चितवन मेरा निढाल
जबसे तुमको देखा है
खोया अपनी पहचान प्रिये
……………………….
कोपल जैसा कोमल तन
अधखिली कली सा रंग रूप
कंधो पे काले केश जाल
खेले है जैसे छाव धूप
सम गुलाब अधरज तेरे
व अधरों पे मुस्कान मंद
जिनका वर्णन करने में
है महा काव्य बन गए छ न्द
अति उत्तम अद्वैत चक्षु
लगते मधुके प्याले है
प्रकृति ने तेरे अंग अंग
ये किस सांचे में ढाले है
तुम सुन्दरता का सार तत्त्व
तुम यौवन का अभिमान प्रिये
………………………… .
पलको का उठ के गिर जाना
धीरे से तेरा मुस्काना
अंगुली में लिपटा कर आंचल
तेरा इठलाना शरमाना
सखियों ने भी छेड़ा होगा
प्रश्नों से घेरा होगा
कारन क्या सिल गए होठ
बंधन तेरा मेरा होगा
बन गए स्नेह के रिश्ते से
क्या तू अब भी अनजान प्रिये
…………………………
…………………………
तेरे चिंतन से मेरा
गुंजित मन स्नेहानुराग
तुझमे ही सारा सुख पाया
पनपा मन में जग से विराग
दूर सही पर पूरक है
तुम प्राची मै किरण पुंज
देखो इतना न इतराओ
मै भवर और तुम पुष्पकुंज
मै हूँ उठाता स्वर कोकिल
तुम वीणा की तान प्रिये
…………………
………………….
यह प्रणय निवेदन है मेरा
तुम इसको स्वीकार करो
बिखरे खुशियों के मोती को
संजो कर मुक्ता हार करो
वो धुली चांदनी की राते
वो खुद से की मीठी बाते
एकाकी में जो भी बीता
हो साथ उन्हें हम दोहरा दे
मै एक अधूरा किस्सा हू
और तू है मेरी कर्णधार
जीवंत करो मेरा जीवन
पहना बाहों का कंठ हार
नवजीवन की श्रृष्टि में ही
है जीवन का सम्मान प्रिये
………………………
……………………..
तुम लगते केवल मेरे हो
तुमसे बढ़ता मेरा लगाव
छलक रहे इन शब्दों में
ढाले है मैंने क्षतज भाव
किस भांति जताऊं मै तुमको
जो दर्द ह्रदय में आता है
मन विरह व्यथा में रोता है
नित आँखों से बह जाता है
मन व्यथा घाव ना बन जाये
तुम रखना इतना ध्यान प्रिये
………………………… .
…………………………
अनजाने सुख की इच्छा मे
भटके मन मूरख अनुगामी
भौतिक सुख उन्मुख जग अँधा
ना महिमा प्रेम की पहचानी
अक्षय पावन प्रेम भाव
जनपूजन का अधिकारी है
यह दो आखर का शब्द प्रेम
सच सभी ज्ञान पर भरी है
तुम सभी विधा का गूढ़ तथ्य
तुम जग का सारा ज्ञान प्रिये
…………………………..
………………………….
हे प्रिये नहीं यह पत्र महज
अभिव्यक्ति है मेरे मन का
कर रहा समर्पित प्रेम यज्ञ मे
हवानाहुती इस जीवन का
उठ रही यज्ञ की यह ज्वाला
ले जायेगी सन्देश मेरा
मै रात अमावस अँधेरी
बन के आओ राकेश मेरा
तुझको अर्पित सब तन मन धन
जानू ना विधि विधान प्रिये
तेरे हाथो मे हृदय दिया
करना इसका सम्मान प्रिये
अब तुम ही मेरा जीवन हो तुझमे बसते है प्राण प्रिये……..
पवन राय
RESEARCH SCHOLAR
DEPARTMENT OF CHEMISTRY
IIT BOMBAY
कल मरना मुझे गंवारा है
Posted in कविता, बिरजू on जुलाई 24, 2009| 2 Comments »
आज सुहानी सुबह हुई, सूरज का बुलंद सितारा है ,
मस्त हवा के झोंके ने, हर वृक्ष का बदन उघारा है ,
ऐसे मस्ती के मौसम में, जब साथ तुम्हारा प्यारा है,
आज बचा लो यारो, कल मरना मुझे गंवारा है !!
हर फूल की बाहें खुली हुई, भंवरों की दीवानी हैं ,
हर पत्ती पत्ती खिली हुई, मौजों की अलग कहानी है ,
दूर क्षितिज पर आज किसी ने , मल्हारी राग पुकारा है ,
आज बचा लो यारो, कल मरना मुझे गंवारा है !!
ज़र्रे ज़र्रे मैं जीवन है , महका मिट्टी का हर कण है ,
दिन चला शाम से मिलने को , बढती उसकी हर धड़कन है ,
उनके मिलन के इन्द्र धनुष को , प्रकृति ने सजा संवारा है ,
आज बचा लो यारो, कल मरना मुझे गंवारा है !!
मदमस्त समय के जाने पर , अब रात सुहानी आई है ,
आकाश से बादल चले गए , तारों की महफ़िल छाई है ,
मन करता है चला जाऊ इनमे , चंदा ने डोल उतारा है ,
खो जाऊँ गर तारों में , ऐसा अंत भी मुझको प्यारा है !!
आज बादलों की सेर तू कर
Posted in कविता, ध्रुव सोनी on जुलाई 24, 2009| 3 Comments »
पता है मंजिले , राह अनजान है
पर चलते ही रहना बस तेरी शान है ,
डगमगाते क़दमों को थाम न तू
मुश्किलों से झूझना तेरी पहचान है ,
अनजानी राहों के चेहरे तो देख
नए भी नही , न ही अनजान है,
तो कदम से मिला कदम बस देर न कर
चिर दे नभ ;
आज बादलों की सेर तू कर |
हर मोड़ पे मुश्किलें है यहाँ राह में
जिनसे डरना नही ये तेरा काम है ,
थम ज़रा मुस्कुरा अब अपनी राह तो देख
मुश्किलें हार नही जीत का पैगाम है ,
है धरती तेरी और नभ भी तेरा
मुस्कुराते पुष्प ,लहरहा उठी है धरा,
सोच मैं जीत है सोच मैं हार है
सोचो तो पतझड़ भी सावन की बहार है ,
बदल दे आंसुओ को होठों की मुस्कान में
पसार पंख नील गगन की शीतल बयार में ,
सोच मत बस संग्राम में तू उतर
चिर दे नभ ,
आज बादलों की सेर तू कर |
मै छोड चुका
Posted in आशीष पालीवाल, कविता on जनवरी 22, 2009| 5 Comments »
मै छोड चुका
तो छोड चुका
प्रिये प्रेम के इस पथ पर
हमको चलना था साथ मगर
हो साथ तेरा हो साथ मेरा
ये राहे साथ नही देती
तन्हा राहो से दर्द भरा
संबंध निभाने से अच्छा
मै तोड चुका
तो तोड चुका
जैसे-जैसे सांसे घटती
ये राहे बंटती जाती है
नाकाम मेरी नज़रे होती
दूरी यूं बढती जाती है
अब किसे याद कि
कभी तुम्हारा
हाथ भी थामा था हमने
वादो के शव पर आस बहा
मुंह मोड चुका
तो मोड चुका
नया सवेरा
Posted in कविता, बिरजू on अक्टूबर 19, 2008| 1 Comment »
इस दिव्य प्रभात की बेला में
एक नया सा सूरज आया है,
जगमग किरणों के पथ से
एक नया सवेरा लाया है !!
इस प्रभात के स्वागत में
तू अपनी बाहे फैला दे,
आत्मसात कर इन किरणों को
तू अपना तन मन पिघला दे !!
अभेद्य दुर्ग के सीने पर
अपना परचम लहरा दे ,
उस परचम के पहलू में
जो सात स्वरों का साया है ,
जगमग किरणों के पथ से
एक नया सवेरा लाया है …
घना बहुत था अँधेरा,
जिसमे तू अब तक जिया है,
हर पथ पर एक विषधर था,
तूने सबका वीष पिया है ,
चलने को हो जा दृढप्रतिज्ञ ,
हर राह तुझे अपनाएगी,
भर ले अपने मन का दीपक,
ये दिव्य सुबह तब आयेगी,
तन्मय होकर गा ले फिर से,
राग जो मन मैं आया है,
जगमग किरणों के पथ से ,
एक नया सवेरा लाया है !!
हिंदी दिवस पर प्रण
Posted in कविता, भास्कर भारती on सितम्बर 14, 2008| Leave a Comment »
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !!
बंधुओं,
यह सर्वविदित हैं की बीते दिन मानवता को शर्मसार करने वाले कुकृत्य पुनः दुहराए गए….दिल्ली की गलियों में फिर किलकारियां गूंजी ,फिर कोई अनाथ हुआ ,फिर कोई दिल सुन्न हुआ होगा ..तो क्या यह सिलसिला चलता ही रहेगा …नहीं ये थमेगा और इसे रोकेंगे हम सब…बस एक ज्वाला की दरकार हैं …उसी ज्वाला की एक इकाई स्वरुप प्रस्तुत मेरी ये रचना…..
ओ प्रफुल्लित मनुवंशजों !!
निद्रा की गोद में
सुसुप्त जीवन तुम्हारा
क्यों नहीं बेधती
अपनों की ही करुण वेदना
तुम चेतनाहीन तो नहीं
फिर क्यों नहीं थमती
विचारों की तकरार
झंकृत करती मानवता
की सुशोभित दर्प को
वो मासूम पल
क्यों होते बदनाम
विनाश की फर्श पर
मुरझाता जीवन
जागो मेरे बांकुरों
कर दो पल समर्पित
दूसरों के खातिर
शुभ्रमयी दिवसों की चाह में
परम की जन्नत को
उतार ला ज़मीं पर
कह सके खुदा भी
बन्दे तू ही मानव हैं
विसरित जिसकी नभ में
कालजयी अखंड गाथा
एक शामियाना
निर्मित ऐसा कर
देवराज भी आ ठहरे
कुछ ऐसा कर
ओ मानवता के मीत
– भास्कर भारती
तेरी याद
Posted in आशीष पालीवाल, कविता on जुलाई 17, 2008| 1 Comment »
रातो को मैं सपने तेरे
बुनता हूँ
मन ही मन मैं यादे तेरी गुनता हूँ
रातो को मैं सपने तेरे बुनता हूँ …….
तेरी यादे तेरी बातें
मन के अपने प्यारे नाते
हर साँस मे तेरा नाम बसा
मैं ख़ुद की धड़कन सुनता हूँ
रातो को मैं सपने तेरे बुनता हूँ…..
बैठ मैं तारे गिनता रहता
ख़ुद ही हस्त ख़ुद से कहता
दर्द भरे इस जीवन से
अब मैं खुशिया चुनता हूँ
रातो को मैं सपने तेरे बुनता हूँ……
चाँद भी अब हस्ता है मुझपे
पागल मुझको कहता है
क्या खैर चकोर दीवाने की
जो उसकी धुन मे रहता है
रैना मैं दीवानों जैसे
प्यार मे सर को धुनता हूँ….
रातो को मैं सपने तेरे बुनता हूँ……
क्या ख़बर शमा को आशिक की
क्या ख़बर उसे दीवाने की
क्या लेना उसको ख़ाक हुई
हस्ती से एक परवाने की
मैं हस्ती अप्नी ख़ाक किए
तेरे प्रेम के कांटे चुनता हूँ
रातो को मैं सपने तेरे बुनता हूँ………
कुछ छूट गया है
Posted in आलोक कुमार, कविता on जुलाई 17, 2008| 3 Comments »
शायद कुछ छूट गया है;
दर्द दिया जो तूने मुझको
भूल गया मैं उन सबको पर,
दिल से उनका था अपनापन
वो अपनापन टूट गया है ,
शायद कुछ छूट गया है;
तेरे गम को भूल गया मैं
खंडहरों में महल बनाकर,
पर कंकर-पत्थर से पिटकर
भोला दिल टूट गया है ,
शायद कुछ छूट गया है;
लहू से लथपथ दिल था मेरा
घाव सुखाया उसे तपाकर,
यादों का उनसे था बंधन
अब बंधन टूट गया है ,
शायद कुछ छूट गया है .
मेरा मन
Posted in कविता, गौरव on मार्च 27, 2008| Leave a Comment »
हो जाऊँ कभी मैं तेज (बिजली) सा
सूरज की तेज किरण सा
घुमु मैं कहीं भी
हो घर मेरा मधुवन सा
राज करू जहां पर मैं
कहलाऊँ मैं भगवन सा
जो चाहू वो मिल जाए
वो … जाए वो जी जाए
झूमु कभी मैं सावन सा
कभी सोचता हूँ दोडू भागु
कस्तूरी के लिए जैसे
वन में कोई हिरन सा
कभी कहीं खो जाऊँ मैं
आसमा के तारो जैसे चमकू
कभी मैं टिम टिम सा
कभी होते हुए भी नहीं दिखु
चन्दा सा कोई अमावस का
कभी कुबेर बनू मैं तो
कभी पतझर के वन सा
भूखा रहूँ मैं
पैदल चलू मैं
धीमा हो जाऊं मैं
पल पल सा
चाहत है या कोई समंदर
मन क्या मेरा चितवन सा.