Archive for अक्टूबर, 2007
हिन्दी लेखन कार्यशाला
Posted in कार्यशाला, तस्वीरें on अक्टूबर 31, 2007| 6 Comments »
मित्रता
Posted in आशीष पालीवाल, कविता on अक्टूबर 12, 2007| 6 Comments »
धूप में किसी पेड की
छाया को कहते मित्रता,
ईश के हाथो बनी
काया को कहते मित्रता ||
ग़र निराशा आ भी जाए
मित्रता अवलम्ब है
बोझ ले विश्वास पर
यह वह अटल स्तम्भ है ||
स्वार्थ को जाने नही
वह भावना है मित्रता
मित्र के हर स्वप्न की
एक कामना है मित्रता ||
मरीचिका में सत्य का
दर्पन दिखा दे मित्रता
निश्वास में निर्वात में
कम्पन जग दे मित्रता ||
एक अजब संबंध है
एक धीरता है मित्रता,
हास्य से सींची हुई
गम्भीरता है मित्रता ||
ग़र कदम थकते कभी तो
मित्रता तो पास है,
जीत का विश्वास भर दे
एक अनूठी आस है ||
हर ख़ुशी के ओष्ठ पर
जो गीत वह है मित्रता,
प्रेम के सुर में ढला
संगीत ऐसी मित्रता ||
सांस जो रूकती कभी तो
दम अगर साहस भरे ,
हार की उम्मीद हो और
सच हो सपनो से परे,
हाथ थामे जीत का
विश्वास देगी मित्रता
अपने ही सामर्थ्य तक
हर श्वास देगी मित्रता ||
ग़र कही इतना अनोखा
प्रेम मिल जाये कभी,
भूल कर भी खो ना देना
साकार ऐसी मित्रता ||
आशीष पालीवाल
प्रथम वर्ष
मेरी परछाई
Posted in कविता, मुदित जैन on अक्टूबर 8, 2007| 3 Comments »
परछाईयों के इस शहर में
ढूँढता हूँ अपनी परछाई
न कोई दीप प्रज्जवलित
मेरे आगे, मेरे पीछे
मेरे दांये या कि बायें
खेल जगत का,संगीत सत्य का
नाट्य-नृत्य का,साहित्य शब्द का.
परछाईयों के इस नगर में
खोजता मैं खुद की परछाई
मन में उठती रहती है
बार-बार एक चिंगारी
पर दिये की लौ अभी तक
उसको जला नही पायी
क्या दिये में तेल कम है?
या फिर बाती शुष्क रही है ?
क्यूँ बार-बार उठती चिंगारी
भीतर दीप जला नहीं पाती .
जिस दिये की लौ में
ढूँढता मैं खुद की परछाई
विश्वास पर अटूट है मन में
दीपक अब जलेंगे सारे
मेरे आगे , मेरे पीछे
मेरे दांये और बायें,
खेल जगत के,संगीत सत्य के
नाट्य-नृत्य के,साहित्य शब्द के,
किया प्रथम ‘मुदित’ सृजन है
‘मुदित’ होगी मेरी परछाई
परछाईयों के इस शहर में
बस दिखेंगी मेरी परछाई ..
मुदित जैन
प्रथम वर्ष
छात्रावास-3
मैं मान गया
Posted in आलोक कुमार, कविता on अक्टूबर 4, 2007| 2 Comments »
बचपन में अपने गाँव में
आम की पेड़ों की छाँव में
मैं मिटटी पर लोटना चाहता था
गिल्ली-डंडा खेलना चाहता था
तो माँ ने मना किया
कि तुम तो अच्छे बच्चे हो
बिगड़ जाओगे
और मैं मान गया ,
कुछ बड़ा होकर स्कूल में
मस्ती की भूल में
भागकर सिनेमा देखना चाहता था
गाली-गलौज करना चाहता था
तो शिक्षकों ने मना किया
कि तुम तो अच्छे बच्चे हो
बिगड़ जाओगे
और मैं मान गया ,
कालेज का दिन भी आया
मन मेरा भी भरमाया
किसी ने नही समझाया
मगर… मैं तो अच्छा बच्चा हूँ
बिगड़ जाऊंगा …
..और मैं मान गया.
— आलोक कुमार
नन्हा संघर्ष
Posted in कविता, नीरज शारदा on अक्टूबर 4, 2007| 5 Comments »
सागर की अपनी विशिष्टता है
वह अनंत है, अगाध है, अथाह है
जिसमें होता असीम उर्जा का अविरत प्रवाह है .
लेकिन मैं उस नन्ही छोटी लहर को
जीवन के अधिक समीप पाता हूँ ,
वह नन्ही लहर ,जो दूर किसी छोर से जन्म पाती है
और उसी पल से नन्हें संघर्ष की कथा शुरू हो जाती है
संघर्ष यही है ‘अस्तित्व का संघर्ष ‘
सागर की प्रचंड शक्तियाँ जैसे उसके दमन को प्रतिबद्ध है.
किन्तु उस नन्ही की शांत प्रतिबद्धता न होती शब्दबद्ध है .
वह निःशक्त, जीवन की उस दौड़ मैं सबसे पीछे ,
फिर भी भारी हुई , उत्साह से, उमंग से ,
वह पहुँचेगी देर ही सही, किनारे तक .
इसी श्रम से वह बढती गयी ,
कभी ओझल हुई, कभी प्रकट हुई ,
आह! वह नन्ही लहर ,
किन क्रूर हाथों ने लिखा था उसका भाग्य
किन्तु प्रचंडता का वह दौड़ पार कर अंततः
उसने किनारे का पहला सुखद स्पर्श पाया
सब चिंताओं को पीछे छोड़ सफ़ेद फेन के साथ
मेरे पैरों को धोया
और बालू के कणों को मेरे शरीर पर संचित कर
स्नेह का एक नया संबंध भी जोडा ,
निश्चिंत, निष्क्रिय;
मुझसे जीवन का मूक संवाद कर रही थी
विश्राम के उन पहले क्षणों में वह
किन्तु विधि के विधान में विश्राम शब्द अपरिभाषित है .
और क्रूर लहरों की एक श्रंखला ने अपने घोष से
भयावह कम्पन्न किया
और अंत के उन क्षणों में उसने फिर संघर्ष करने का
आश्वासन दिया ,
और अंत के उन कठिन क्षणों में
जल्द मिलने का स्वर किया ,
और बालू के उस ऋण से मुक्त होने के लिए मैं
आज भी इन्तजार कर रहा हूँ.
नीरज शारदा
प्रथम वर्ष
छात्रावास-3
कह गया अलविदा
Posted in कविता, भास्कर भारती on अक्टूबर 4, 2007| 3 Comments »
मान गया भगवन तेरी अदा बड़ी निराली
कहॉ था तू जब छोड़ रहा था मैं जग हरियाली
किस जुबान से कहूँ अपनी बिखरी ये दास्तान
बालू की रेत में मिला मेरा सपना आलीशान
पल-पल देता रहा इम्तिहान
कितनों की करूं मैं बखान
ये जीवन प्रतीत हुआ चलचित्र समान
दुःख ही तो था मेरा मित्र महान
सुना था जिंदगी की डगर
बरी जटिल होती हैं जिसकी सफ़र
भ्रम का ही होता हैं आवरण
जिससे पाना होता हैं निवारण
मैं ठहरा मासूम नादान
सारी बुराइयों से अनजान
जग की चपलताओं का था नहीं ज्ञान
गाता था बस एक ही गान
फूलों की महक बन जाऊँगा
अंधेरों में दीप जलाऊंगा
भूलना चाहो भी तो भूल ना पाओ
दिल में कुछ तान ऐसे सजा दूंगा
तेरे गुलशन में कुछ फूल ऐसे खिलाऊँगा
जो मुरझाना नहीं जानेंगे
वक़्त के साथ हम हो या ना हो
आप कामयाबी की पंक्तियाँ लिख जायेंगे
पर देख दुनिया की रंजिशें
जग में फैली बंदिशें
दबी ही रह गयी सारी ख्वाहिशें
करनी थी जिसकी नुमाइशें
मेरा ही अस्तित्व था दांव पर
मानो कुल्हारी परी हो पांव पर
हो गया मैं जैसे अपंग
कंचन जग हुई बदरंग
मेरा संघर्षरत जीवन
पाया क्या इसने
अटूट ग़मों का सिलसिला
जिसे हार के बाद हार ही मिला
थमी जीवन
रुकी स्पंदन
अब क्या !
जीवन या मरण !
और कहना ही पड़ा
अलविदा
ए फिजां ए चमन
तुझे अलविदा
…तुझे अलविदा
— भास्कर भारती
जिंदगी की राह-ए-गुजर में
Posted in कविता, मनीष सौरभ on अक्टूबर 4, 2007| 1 Comment »
जिंदगी की राह-ए-गुजर में यार मेरा था पुराना
आईने ने भी कर दिया मुझसे अब तो ये बहाना
दिल दिया है जिसको उसे ये दर्द भी दे आइये
दौर-ए-जहाँ के ज़ख्म अब मुझको नहीं दिखलाइये
लाख कोशिश कर चुका, आईने को मैं भाता नहीं
बेरहम मेरा सनम है, आईना समझ पाता नहीं
आज जब रुखसत हुए हैं तो इतना तो कर ही दीजिए
कुछ रह गया है आपकी आँखों में लौटा दीजिए
आईने में आजकल कुछ भी तो दिखता है नहीं
तस्वीर मेरी आपकी आँखों से वापस कीजिए
इस जहाँ के नश्तरों को झेलना यूँ मुमकिन नहीं
गर दवा देंगे नहीं तो जहर ही दे दीजिए
— मनीष सौरभ
जंगल-गीत
Posted in कविता, हर्षवर्धन on अक्टूबर 4, 2007| 7 Comments »
अमराई की छाँव सी
सपनों के गाँव सा ,
जैसे हो सीप में मोती
समंदर में नाव सा ,
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
खुशबु हो जिसमें फैली
सोंधी सी माटी की
छाँव हो जिसपर पसरी
अरहर की टाटी सी ,
ऐसे उपवन के जैसा
गीत गाना चाहता हूँ ,
निर्झर के नाद सा
वन के संवाद सा
खामोशी जिसमें गूंजे
ऐसे आह्लाद का
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
नदिया के तट पर खड़े
बूढ़े से पेड़ का
बच्चो की सी सरलता
हँसते अधेर का ,
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
वो मीठी धुप देखो
पत्तों से छानकर
ज्यों रेशमी ताना बाना
बुनता है कोई बुनकर ,
ऐसा ही बुना हुआ
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ .
— हर्षवर्धन
प्रथम वर्ष
छात्रावास-2
जरिया
Posted in कविता, गरिमा तिवारी on अक्टूबर 2, 2007| 6 Comments »
इस दिल की भावना कोई ना समझ पाया
कि आते आते ये दर्द आँखों में भर आया
इस दर्द को पोंछने में भी एक टीसें सी उठी
बह जाने दो मुझे एक बार कहीं ये आवाज उठी
आज फिर उसे रोकने में हाथ कंपकंपाया है
इस दर्दनाक आवाज को फिर दिल की गहराईयों में दबाया है
कभी पुकारे वो आवाज दुबारा
गूँजेगा यही सवाल बार बार हमारा
सवाल ये है कि इस तरह कब तक बचेंगें इस दर्द से
दुनिया को छोड़ क्यूँ ना निकाल दें इस दर्द को मन से
और बह जाने दें इन्हें बनकर दरिया
दुनिया है ही तो भावनाएँ जताने का जरिया.
— गरिमा तिवारी
सर्दियों का मौसम
Posted in कविता, विकास कुमार on अक्टूबर 2, 2007| 5 Comments »
ठंड हो गयी है.
फिर से सर्दियों का मौसम आ गया.
गर्म कमरे से बाहर निकलते ही
तुम्हारी यादें नश्तर की तरह
हड्डियों में समाने लगती हैं.
थोड़ा असर शायद हवाओं में भी होगा.
लेकिन यह मौसम वैसा नहीं है
मेरी ठंडी उंगलियाँ –
तुम्हारे होठों की गरमी के बिना
सूज गयी हैं.
देखो ना!
अब कवितायें कहाँ लिख पाता हूँ?
लिखने की कोशिश करते ही,
उँगलियों की ठंड
बाजुओं से होती हुई
दिल में समा जाती है.
मानों, इनका आपस में समझौता हो
ठंड बाँटने का.
और एक अनकहा सा वादा हो
दर्द साथ सहने का.
वादे से याद आया –
वो वादा, जिसकी लाश बची है सिर्फ़
जिसका एक हिस्सा तो तुमने जला दिया था
गर्मियों के आते ही.
(आखिर लाश देर सवेर बदबू जो देती है)
लेकिन दुसरे को मैंने सहेज कर रखा था.
मैं थोड़ा डरा भी.
सच!
कहीं वादे की सड़ाँध मेरी जान ना ले ले.
और फिर मैं ऊबकर उसे जला ना दूँ.
लेकिन शुक्र है.
फिर से सर्दियों का मौसम आ गया.
अब वो हिस्सा सुरक्षित है.
मैं चैन से तुम्हारी यादों में
बेचैन हो सकूँगा.
लेकिन यही ठंड तो तुम्हारे यहाँ भी होगी?
सो अपना खयाल रखना.
अगर प्रेम का अवशेष बचा हो
तो जलाना, आग सेंकना
थोड़ी सी गरमी देकर खत्म हो –
बेबस पातंगिक प्रेम और क्या चाहेगा?